बाख़बर
था मैंने जब भी चाहा,
हाल-ए-दिल सुनाऊँ तुझे,
थे जब भी मैंने बढ़ाए,
तेरी जानिब ये क़दम,
तू मुझसे दूर,
अकेला निकल गया था कहीं…
… More बाख़बर
था मैंने जब भी चाहा,
हाल-ए-दिल सुनाऊँ तुझे,
थे जब भी मैंने बढ़ाए,
तेरी जानिब ये क़दम,
तू मुझसे दूर,
अकेला निकल गया था कहीं…
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ग़ज़ल के हर शेर में क़ाफ़िये के बाद आने वाला वह समांत शब्द या शब्द समूह रदीफ़ कहलाता है जो मतले (ग़ज़ल का पहला शे’र) के दोनों मिसरों के अंत में आता है तथा अन्य अश’आर के दूसरी पंक्ति के अंत में आता है और पूरी ग़ज़ल में एक सा रहता है।
आगे पढ़ें.. … More उर्दू शाइरी की शब्दावली: रदीफ़
ग़ज़ल में क़ाफ़िया शब्दों के उस समूह को कहते हैं जो मतले के दोनों मिसरों और हर शेर के दूसरे मिसरे में रदीफ से पहले आते हैं व समान ध्वनि से उच्चारित किये जाते हैं।
आगे पढ़ें.. … More उर्दू शाइरी की शब्दावली: क़ाफ़िया
वो एक शाम गुज़ारी थी जो,
तूने मैंने,
लम्हा-लम्हा बरस रहा था,
वक़्त का बादल! … More पर्वाज़-ए-शमा
ये शीश महल है कैसा,
मुझको घेरे हुए?
ये बेहिसाब मेरे गिर्द,
किसके चेहरे हुए?
ये अक्स,
अजनबी से अक्स,
कब से मेरे हुए? … More उफ़क़ के पार
वफ़ा की राह पर,
निकल तो आए हैं लेकिन,
क़दम-क़दम पर इम्तिहान-ए-वक़्त,
बिखरे हुए… … More मंज़िल
मिरी दुनिया यहाँ से है मिरी दुनिया वहाँ तक है
ज़मीं से आसमाँ तक आसमाँ से ला-मकाँ तक है
ख़ुदा जाने हमारे इश्क़ की दुनिया कहाँ तक है
ख़ुदा जाने कहाँ से जल्वा-ए-जानाँ कहाँ तक है
अपने पसंदीदा शायर को उनके जन्मदिन पर याद करते हुए! … More बेदम शाह वारसी
यूँ महव-ए-रक़्स हैं अलफ़ाज़ मेरे गीतों के,
उसी पाज़ेब की रुमझुम का गुमाँ होने लगा… ये गुमशुदा नज़्म 6 जनवरी 1993 में लिखी गई थी – नब्बे के दशक की बेतरतीब चीज़ों को अब झाड़-पोंछ कर जाले उतारने का काम जारी है! … More नग़्म-ए-फ़ुर्क़त
ये मायाजाल
महज़ ग़मों से है बुना,
और तो कुछ भी नहीं!
ये गुमशुदा नज़्म अप्रैल 1996 में लिखी गई थी – नब्बे के दशक की बेतरतीब चीज़ों को अब झाड़-पोंछ कर जाले उतारने का काम जारी है! … More ख़ौफ़-ए-हक़ीक़त
उर्दू शाइरी में प्रयोग किये जाने वाले शब्दों की उनकी परिभाषा सहित सूची … More उर्दू शाइरी की शब्दावली