उर्दू शाइरी की शब्दावली: क़ाफ़िया

क़ाफ़िया

  1. काफिया अरबी भाषा का पुल्लिंग शब्द है जिसके अर्थ हैं ”पीछे चलने वाला, पे दर पे (लगातार) आने वाला,
  2. ग़ज़ल में क़ाफ़िया शब्दों के उस समूह को कहते हैं जो हर शे’र में रदीफ़़ के ठीक पहले आता है और सम-तुकांतता के साथ हर शे’र में बदलता रहता है।
  3. क़ाफ़िया मतले के दोनों मिसरों और हर शेर के दूसरे मिसरे में आता है व समान ध्वनि से उच्चारित किया जाता है।
  4. हिन्दी में इसे अंत्यानुप्रास या तुक तथा अंग्रेजी में ‘राइम’ कहा जा सकता है.
  5. काफिया ग़़ज़ल के मतले में स्पष्ट किया जाता है क्योंकि मतले के बाद काफिया नहीं बदल सकते।
  6. शे’र का आकर्षण क़ाफ़िये पर ही टिका होता है – क़ाफ़िये का जितनी सुंदरता से निर्वहन किया जायेगा शे’र उतना ही प्रभावशाली होगा।
  7. क़वाफ़ी: क़ाफ़िया का बहुवचन।
  8. अगर आप ग़ज़ल लिखना चाहें तो क़ाफ़िए चुनने के लिए रेख़्ता की साइट पर ये सुविधा उपलब्ध है। जिस मात्रा भार का काफिया चाहिए वो वहाँ मिल जाएगा: तीस हज़ार से अधिक ग़ज़लों में प्रयुक्त काफ़ियों का शब्दकोश

उदाहरण #1:

बहुत रहा है कभी लुत्फ़-ए-यार हम पर भी
गुज़र चुकी है ये फ़स्ल-ए-बहार हम पर भी!
ख़ता किसी कि हो लेकिन खुली जो उनकी ज़बाँ
तो हो ही जाते हैं दो एक वार हम पर भी
[अकबर इलाहाबादी]

जैसे कि ऊपर दिए गए अश’आर में
“हम पर भी” रदीफ़ से ठीक पहले
यार, बहार पहले शेर के दोनों मिसरों
के अंत में आ रहे हैं तथा अन्य
अश’आर के दूसरी पंक्ति के अंत में
वार आ रहा है तो पूरी ग़ज़ल में
क़ाफ़िया -आर रहेगा।


उदाहरण #2:

तूने ये फूल जो ज़ुल्फ़ों में लगा रखा है
इक दिया है जो अँधेरों में जला रखा है

इम्तेहाँ और मेरी ज़ब्त का तुम क्या लोगे
मैंने धड़कन को भी सीने में छुपा रखा है

दिल था एक शोला मगर बीत गये दिन वो क़तील,
अब क़ुरेदो ना इसे राख़ में क्या रखा है
[क़तील]

यहाँ ऊपर दिए गए अश’आर में
मतले में “रखा है” रदीफ़ हो गया
और “लगा” और “जला” में
आ की मात्रा समान है
[अलिफ़ का क़ाफ़िया],
तो ये काफिये के शब्द हैं,
जो मतले के दोनों मिसरों के बाद
हर शेर में दूसरे मिसरे में रदीफ
से पहले अपनी सुनिश्चत जगह पर स्थित हैं।

ये सभी शब्द ‘हम क़ाफ़िया
कहलायेंगे क्योंकि ये एक ही
काफिये के अन्तर्गत आते हैं।


उदाहरण #3:

क्या जाने कब कहां से ‘चुराई’ मेरी ग़ज़ल
उस शोख ने मुझको ‘सुनाईमेरी ग़ज़ल.

पूछो जो मैंने उससे कि है कौन खुशनसीब
आंखों से मुस्कुरा के ‘लगाई’ ’ मेरी ग़ज़ल.

एक एक लफ्ज बन के उड़ज्ञ धुंआ धुंआ
उसने जो गुनगुना के ‘सुनाई’ ’ मेरी ग़ज़ल.

हर एक शख्स मेरी ग़ज़ल गुन गुनाए है
‘राही’ तेरी जुबां पे न ‘आई’ ’ मेरी ग़ज़ल.
[सैयद राही]

यहाँ ऊपर दिए गए अश’आर
में मतले में “मेरी ग़ज़ल” रदीफ़
हो गया और चुराई, सुनाई,
लगाई, सुनाई, आई में ई की मात्रा
समान है, तो ये काफिये के शब्द हैं,
जो मतले के दोनों मिसरों के बाद
हर शेर में दूसरे मिसरे में
रदीफ से पहले अपनी
सुनिश्चत जगह पर स्थित हैं।

ये सभी शब्द ‘हम क़ाफ़िया
कहलायेंगे क्योंकि ये एक ही
काफिये के अन्तर्गत आते हैं।


उदाहरण #4:

अपने होंठों पर सजाना चाहता हूँ
आ तुझे मैं गुनगुनाना चाहता हूँ

कोई आँसू तेरे दामन पर गिराकर
बूँद को मोती बनाना चाहता हूँ

थक गया मैं करते-करते याद तुझको
अब तुझे मैं याद आना चाहता हूँ

छा रहा है सारी बस्ती में अँधेरा
रोशनी हो, घर जलाना चाहता हूँ

आख़री हिचकी तेरे ज़ानों पे आये
मौत भी मैं शायराना चाहता हूँ

यहाँ ऊपर दिए गए अश’आर में
मतले में “चाहता हूँ” रदीफ़ हो गया
और सजाना, बनाना, गुनगुनाना में
“आना” समान है, तो ये काफिये
के शब्द हैं, जो मतले के दोनों मिसरों
के बाद हर शेर में दूसरे मिसरे में
रदीफ से पहले अपनी
सुनिश्चत जगह पर स्थित हैं।

ये सभी शब्द ‘हम क़ाफ़िया
कहलायेंगे क्योंकि ये एक ही
काफिये के अन्तर्गत आते हैं।


उदाहरण #5:

दर्द सीने से उठा आंख से आंसू निकले
रात आई तो ग़ज़ल कहने के पहलू निकले

दिल का हर दर्द यूं शेरों में उभर आया है
जैसे मुरझाए हुए फूल से खुशबू निकले

जब भी बिछड़ा है कोई शख्स तेरा ध्यान आया
हर नये गम से तेरी याद के पहलू निकले

अश्क उमड़े तो सुलगने लगीं पलकें ‘राशिद’
खुश्क पत्तों को जलाते हुए जुगनू निकले
[मुमताज़ राशिद]

यहाँ ऊपर दिए गए अश’आर
में मतले में “निकले” रदीफ़
हो गया और पहलू, खुशबू , जुगनू,
में की मात्रा
समान है, तो ये काफिये के शब्द हैं,
जो मतले के दोनों मिसरों के बाद
हर शेर में दूसरे मिसरे में
रदीफ से पहले अपनी
सुनिश्चत जगह पर स्थित हैं।

ये सभी शब्द ‘हम क़ाफ़िया
कहलायेंगे क्योंकि ये एक ही
काफिये के अन्तर्गत आते हैं।


गोविन्‍द गुलशन जी की कुछ ग़ज़लों से मक्‍ते और क़ाफ़िए

‘लफ़्ज़ अगर कुछ ज़हरीले हो जाते हैं
होंठ न जाने क्यूँ नीले हो जाते हैं’
इसके साथ बतौर क़ाफ़िया बर्छीले, गीले, दर्दीले, ख़र्चीले, रेतीले, पीले उपयोग में लाये गये हैं।

‘ग़म का दबाव दिल पे जो पड़ता नहीं कभी 
सैलाब आँसुओं का उमड़ता नहीं कभी’
इसके साथ बतौर क़ाफ़िया बिछड़ता, उखड़ता, पड़ता, उमड़ता उपयोग में लाये गये हैं।

सम्हल के रहिएगा ग़ुस्से में चल रही है हवा
मिज़ाज गर्म है मौसम बदल रही है हवा
इसके साथ बतौर क़ाफ़िया पिघल, मुसलसल, टहल, चल, मचल उपयोग में लाये गये हैं।

‘इक चराग़ बुझता है इक चराग़ जलता है
रोज़ रात होती है,रोज़ दिन निकलता है’
इसके साथ बतौर क़ाफ़िया टहलता, निकलता, बदलता, चलता, जलता उपयोग में लाये गये हैं।

और एक ख़ास ग़ज़ल से जिसमें दो रदीफ़ और दो क़ाफ़िया प्रयोग में लाये गये हैं।

‘उसकी आँखों में बस जाऊँ मैं कोई काजल थोड़ी हूँ
उसके शानों पर लहराऊँ मैं कोई आँचल थोड़ी हूँ
 
इस ग़ज़ल में ‘मैं कोई’ तथा ‘थोड़ी हूँ’ के साथ बतौर काफि़या बहलाऊँ  तथा पागल, जाऊँ तथा पीतल, पाऊँ तथा पल, मचाऊँ तथा पायल, उपयोग में लाये गये हैं।

मूल लेख:

  1. ग़ज़ल का प्रारूप
  2. ग़ज़ल एक परिचय: त्रिलोक राज कपूर
  3. ग़ज़ल-संक्षिप्‍त आधार जानकारी-1 [ns]

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