कुछ पसंदीदा अशआ’र
हमारी ज़िंदगी तो मुख़्तसर सी इक कहानी थी
भला हो मौत का जिस ने बना रक्खा है अफ़्साना
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सब ने ग़ुर्बत में मुझ को छोड़ दिया
इक मिरी बेकसी नहीं जाती
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अपना तो ये मज़हब है काबा हो कि बुत-ख़ाना
जिस जा तुम्हें देखेंगे हम सर को झुका देंगे
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जो सुनता हूँ सुनता हूँ मैं अपनी ख़मोशी से
जो कहती है कहती है मुझ से मिरी ख़ामोशी
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उस को दुनिया और न उक़्बा चाहिए
क़ैस लैला का है लैला चाहिए
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तुम जो चाहो तो मिरे दर्द का दरमाँ हो जाए
वर्ना मुश्किल है कि मुश्किल मिरी आसाँ हो जाए
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अब आदमी कुछ और हमारी नज़र में है
जब से सुना है यार लिबास-ए-बशर में है
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ऐ जुनूँ क्यूँ लिए जाता है बयाबाँ में मुझे
जब तुझे आता है घर को मिरे सहरा करना
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देने वाले तुझे देना है तो इतना दे दे
कि मुझे शिकवा-ए-कोताही-ए-दामाँ हो जाए
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बेदम ये मोहब्बत है या कोई मुसीबत है
जब देखिए अफ़्सुर्दा जब देखिए जब मग़्मूम
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कहाँ ईमान किस का कुफ़्र और दैर-ओ-हरम कैसे
तिरे होते हुए ऐ जाँ ख़याल-ए-दो-जहाँ क्यूँ हो
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मिरे दर्द-ए-निहाँ का हाल मोहताज-ए-बयाँ क्यूँ हो
जो लफ़्ज़ों का हो मजमूआ वो मेरी दास्ताँ क्यूँ हो
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बरहमन मुझ को बनाना न मुसलमाँ करना
मेरे साक़ी मुझे मस्त-ए-मय-ए-इरफ़ाँ करना
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जिस की इस आलम-ए-सूरत में है रंग-आमेज़ी
उसी तस्वीर का ख़ाका तो ये इंसान भी है
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वो क़ुलक़ुल-ए-मीना में चर्चे मिरी तौबा के
और शीशा-ओ-साग़र की मय-ख़ाने में सरगोशी
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मुझे शिकवा नहीं बर्बाद रख बर्बाद रहने दे
मगर अल्लाह मेरे दिल में अपनी याद रहने दे
मिरे नाशाद रहने से अगर तुझ को मसर्रत है
तो मैं नाशाद ही अच्छा मुझे नाशाद रहने दे
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ग़ज़ल:
क़फ़स की तीलियों से ले के शाख़-ए-आशियाँ तक है
मिरी दुनिया यहाँ से है मिरी दुनिया वहाँ तक है
ज़मीं से आसमाँ तक आसमाँ से ला-मकाँ तक है
ख़ुदा जाने हमारे इश्क़ की दुनिया कहाँ तक है
ख़ुदा जाने कहाँ से जल्वा-ए-जानाँ कहाँ तक है
वहीं तक देख सकता है नज़र जिस की जहाँ तक है
कोई मर कर तो देखे इम्तिहाँ-गाह-ए-मोहब्बत में
कि ज़ेर-ए-ख़ंजर-ए-क़ातिल हयात-ए-जावेदाँ तक है
नियाज़-ओ-नाज़ की रूदाद-ए-हुस्न-ओ-इश्क़ का क़िस्सा
ये जो कुछ भी है सब उन की हमारी दास्ताँ तक है
क़फ़स में भी वही ख़्वाब-ए-परेशाँ देखता हूँ मैं
कि जैसे बिजलियों की रौ फ़लक से आशियाँ तक है
ख़याल-ए-यार ने तो आते ही गुम कर दिया मुझ को
यही है इब्तिदा तो इंतिहा उस की कहाँ तक है
जवानी और फिर उन की जवानी ऐ मआज़-अल्लाह
मिरा दिल क्या तह-ओ-बाला निज़ाम-ए-दो-जहाँ तक है
हम इतना भी न समझे अक़्ल खोई दिल गँवा बैठे
कि हुस्न-ओ-इश्क़ की दुनिया कहाँ से है कहाँ तक है
वो सर और ग़ैर के दर पर झुके तौबा मआज़-अल्लाह
कि जिस सर की रसाई तेरे संग-ए-आस्ताँ तक है
ये किस की लाश बे-गोर-ओ-कफ़न पामाल होती है
ज़मीं जुम्बिश में है बरहम निज़ाम-ए-आसमाँ तक है
जिधर देखो उधर बिखरे हैं तिनके आशियाने के
मिरी बर्बादियों का सिलसिला या-रब कहाँ तक है
न मेरी सख़्त-जानी फिर न उन की तेग़ का दम-ख़म
मैं उस के इम्तिहाँ तक हूँ वो मेरे इम्तिहाँ तक है
ज़मीं से आसमाँ तक एक सन्नाटे का आलम है
नहीं मालूम मेरे दिल की वीरानी कहाँ तक है
सितमगर तुझ से उम्मीद-ए-करम होगी जिन्हें होगी
हमें तो देखना ये था कि तू ज़ालिम कहाँ तक है
नहीं अहल-ए-ज़मीं पर मुनहसिर मातम शहीदों का
क़बा-ए-नील-गूँ पहने फ़ज़ा-ए-आसमाँ तक है
सुना है सूफ़ियों से हम ने अक्सर ख़ानक़ाहों में
कि ये रंगीं-बयानी ‘बेदम’-ए-रंगीं-बयाँ तक है
यहाँ सुनिए: क़फ़स की तीलियों से Abida Parveen
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कुछ ग़ज़लें
- अगर काबा का रुख़ भी जानिब-ए-मय-ख़ाना हो जाए
- अपनी हस्ती का अगर हुस्न नुमायाँ हो जाए
- अपने दीदार की हसरत में तू मुझ को सरापा दिल कर दे
- अल्लाह-रे फ़ैज़ एक जहाँ मुस्तफ़ीद है
- इश्क़ के आसार हैं फिर ग़श मुझे आया देखो
- क़फ़स की तीलियों से ले के शाख़-ए-आशियाँ तक है
- कभी यहाँ लिए हुए कभी वहाँ लिए हुए
- क़स्र-ए-जानाँ तक रसाई हो किसी तदबीर से
- काश मिरी जबीन-ए-शौक़ सज्दों से सरफ़राज़ हो
- कुछ लगी दिल की बुझा लूँ तो चले जाइएगा
- कौन सा घर है कि ऐ जाँ नहीं काशाना तिरा और जल्वा-ख़ाना तिरा
- क्या गिला इस का जो मेरा दिल गया
- खींची है तसव्वुर में तस्वीर-ए-हम-आग़ोशी
- ग़म्ज़ा पैकान हुआ जाता है
- गुल का किया जो चाक गरेबाँ बहार ने
- छिड़ा पहले-पहल जब साज़-ए-हस्ती
- जुस्तुजू करते ही करते खो गया
- तुम ख़फ़ा हो तो अच्छा ख़फ़ा हो
- तूर वाले तिरी तनवीर लिए बैठे हैं
- तेरी उल्फ़त शोबदा-पर्वाज़ है
- दारू-ए-दर्द-ए-निहाँ राहत-ए-जानी सनमा
- दिल लिया जान ली नहीं जाती
- न कुनिश्त ओ कलीसा से काम हमें दर-ए-दैर न बैत-ए-हरम से ग़रज़
- न तो अपने घर में क़रार है न तिरी गली में क़याम है
- न मेहराब-ए-हरम समझे न जाने ताक़-ए-बुत-ख़ाना
- न सुनो मेरे नाले हैं दर्द-भरे दार-ओ-असरे आह-ए-सहरे
- पर्दे उठे हुए भी हैं उन की इधर नज़र भी है
- पहले शर्मा के मार डाला
- पास-ए-अदब मुझे उन्हें शर्म-ओ-हया न हो
- बताए देती है बे-पूछे राज़ सब दिल के
- बरहमन मुझ को बनाना न मुसलमाँ करना
- बुत भी इस में रहते थे दिल यार का भी काशाना था
- मुझ से छुप कर मिरे अरमानों को बर्बाद न कर
- मुझे जल्वों की उस के तमीज़ हो क्या मेरे होश-ओ-हवास बचा ही नहीं
- मुझे शिकवा नहीं बर्बाद रख बर्बाद रहने दे
- मुबारक साक़ी-ए-मस्ताँ मुबारक
- में ग़श में हूँ मुझे इतना नहीं होश
- मैं यार का जल्वा हूँ
- यूँ गुलशन-ए-हस्ती की माली ने बिना डाली
- ये ख़ुसरवी-ओ-शौकत-ए-शाहाना मुबारक
- ये साक़ी की करामत है कि फ़ैज़-ए-मय-परस्ती है
- शादी ओ अलम सब से हासिल है सुबुकदोशी
- सहारा मौजों का ले ले के बढ़ रहा हूँ मैं
- हम मय-कदे से मर के भी बाहर न जाएँगे
- हलाक-ए-तेग़-ए-जफ़ा या शहीद-ए-नाज़ करे
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[कुछ वर्तनी की कमियों के लिए माफ़ी]
आभार: रेख़ता
आगे पढ़ें:
मेरे मनपसंद शायर और कवि
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