- ग़ज़ल के हर शेर में क़ाफ़िये के बाद आने वाला वह समांत शब्द या शब्द समूह रदीफ़ कहलाता है जो मतले (ग़ज़ल का पहला शे’र) के दोनों मिसरों के अंत में आता है तथा अन्य अश’आर के दूसरी पंक्ति के अंत में आता है और पूरी ग़ज़ल में एक सा रहता है। जैसे:
बहुत रहा है कभी लुत्फ़-ए-यार हम पर भी
गुज़र चुकी है ये फ़स्ल-ए-बहार हम पर भी!
ख़ता किसी कि हो लेकिन खुली जो उनकी ज़बाँ
तो हो ही जाते हैं दो एक वार हम पर भी
[अकबर इलाहाबादी]
- जैसे कि ऊपर दिए गए अश’आर में “हम पर भी” पहले शेर के दोनों मिसरों के अंत में आ रहा है तथा अन्य अश’आर के दूसरी पंक्ति के अंत में आ रहा है और पूरी ग़ज़ल में एक सा रहेगा।
- तो “हम पर भी” इस ग़ज़ल का रदीफ़ कहलायेगा।
- रदीफ़ एक शब्द की भी हो सकता है और एक से अधिक भी।
- रदीफ़ को लेकर कोई नियम नहीं है कि वो कितना लम्बा हो। बस उसको बहर में होना चाहिये।
- लम्बी रदीफों का प्रयोग, उर्दू शायरी के मध्य युग की विशेषता रही है।
गैर मुरदद्फ ग़ज़ल
रदीफ़ ग़ज़ल का अनिवार्य अंग नहीं है – बिना रदीफ़ की गज़लें भी कही गई हैं इन्हें गैर मुरदद्फ ग़ज़ल कहा जाता है। जैसे:
मौसम से निकले शाखों से पत्ते हरे-हरे
पौधे चमन में फूलों से देखे भरे-भरे
आगे किस के क्या करें दस्ते तमअ दराज
वह हाथ सो गया है सिरहाने धरे-धरे
मरता था मैं तो बाज रखा मरने से मुझे
यह कहके कोई ऐसा करे है अरे-अरे
गुलशन में आग लग रही थी रंग-गुल से ‘मीर’
बुल बुल पुकारी देख के साहब परे-परे
यहां दुहरा क़ाफ़िया है परन्तु रदीफ़ नहीं है.
आभार:
ग़ज़ल का प्रारूप,
ग़ज़ल एक परिचय: त्रिलोक राज कपूर,
ग़ज़ल-संक्षिप्त आधार जानकारी-1 [NS]
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